मेने लिया ओरत का जन्म मेरा यही कसूर 
कितना भरऊगी मैं हर्जाना सारी उम्र हो गयी 
जुर्म की सज़ा ख़तम नहीं हुई क्या मरद जात इतनी महान हे?
मैंने उम्र भर इंतजार किया होगी उसकी कृपा
 पर वो कहाँ हैं. वो पत्थर का भगवान हैं.
 मैं असहाय नहीं पर ज़हर ये पीना पड़ता है,
आँखों में आसू भी नही,विद्रोह भी नही-
एक कठपुतलीजो नाचे,जो कहा जाए करो पर क्यों?
क्योंकि मैं एक ओरत हूँ,
जिसकी अपनी अब भी हस्ती नहीं,कहने को हम चांद पर जा पहुचे हें.
मर्द चाहे बेटा या पति,मेरा कोई घर नहीं,
पहले पति का फिर पुत्र का मैं तो कहीं भी नहीं.
हर बात पे ये क्यों- ये क्यों ना किया?
हूँ मैं नज़रबंद जो घर मे रहती हे,जेसे एक अपराधी,
जिसकी हर गतिविधि पर नज़र.
ज़वाब देने  हैं मुझे जो मेरे गुनाह हें,
मेंने वो किया जो मेने चाहा,किया तो क्यों किया?
कोई नही पूछ्ता मेरी भी हे कोई चाह.
मेरी निगाहें देखती हें किसकी राह?
कोई तो हो जो अपना कहा जा सके,
वो भगवान भी तो नही सुनता  
मैं अकेली नही मेरे कितने साथी हैं 
जो खामोश सब सहे जाते हैं.
यही सहारा काफ़ी हे
.मेरे प्रभु-रास्ता सुझाई देता है,
 न मंजिल दिखाई देती है, 
न लफ्ज़ जुबां पर आते हैं, 
न धड़कन सुनाई देती है, 
एक अजीब सी कैफियत ने आन घेरा है मुझे
मुझे तेरी सूरत में मेरी तकदीर दिखती हें

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