स्त्री
केदार नाथ सिंह की एक कविता : *स्त्रियां जब चली जाती हैं* स्त्रियां अक्सर कहीं नहीं जातीं साथ रहती हैं पास रहती हैं जब भी जाती हैं कहीं तो आधी ही जाती हैं शेष घर मे ही रहती हैं लौटते ही पूर्ण कर देती हैं घर पूर्ण कर देती हैं हवा, माहौल, आसपड़ोस स्त्रियां जब भी जाती हैं लौट लौट आती हैं लौट आती स्त्रियां बेहद सुखद लगती हैं सुंदर दिखती हैं प्रिय लगती हैं स्त्रियां जब चली जाती हैं दूर जब लौट नहीं पातीं घर के प्रत्येक कोने में तब चुप्पी होती है बर्तन बाल्टियां बिस्तर चादर नहाते नहीं मकड़ियां छतों पर लटकती ऊंघती हैं कान में मच्छर बजबजाते हैं देहरी हर आने वालों के कदम सूंघती है स्त्रियां जब चली जाती हैं ना लौटने के लिए रसोई टुकुर टुकुर देखती है फ्रिज में पड़ा दूध मक्खन घी फल सब्जियां एक दूसरे से बतियाते नहीं वाशिंग मशीन में ठूँस कर रख दिये गए कपड़े गर्दन निकालते हैं बाहर और फिर खुद ही दुबक-सिमट जाते हैँ मशीन के भीतर स्त्रियां जब चली जाती हैं कि जाना ही सत्य है तब ही बोध होता है कि स्त्री कौन होती है कि जरूरी क्यों होता ह...